Sunday 9 September 2012

इन्तेहा इश्क़ की


काश मेरी हर खुशी
तुझ से शुरू होती 
और हर ग़म
तुझ पे ही ख़त्म होता

किस मोड़ पे आ खड़ी हूँ मै 
हर घडी तुझसे मिलने का दिल करता है
ना मिल सकूँ तो हर पल हर वक़्त
तुझ से जुड़े रहें का मन करता है

हमेशा सोचा था की मैं तो उन लोगो में हूँ
जिन्हें कभी किसी से बे-इंतेहा  प्यार ना होगा
पर वो इन्तेहा किस मोड़ पे रह गयी
अब तो पीछे मुड के दिखती भी नहीं

तेरी हर ख़ामियों में, हर ग़लतियों में 
मुझे मेरा ही दोष नज़र आता हैं 
सोचती हूँ कि कैसे सब को मिटा दूँ 
कैसे हमारी ज़िन्दगी से जुदा कर दूँ 

आँखें ये देखना ही नहीं चाहती 
कि तू कितना बदल गया है 
तेरी आँखों में अब 
मेरे लिए वो प्यार ही नहीं 

तू वो बन गया है जो किसी वक़्त मैं हुआ करती थी 
अब समझ आने लगा है कि 
तू किन मुश्किलों से मुझे प्यार करता था
किन दुखो से तू गुज़रता था 

पर अब शायद मेरा समय है 
अब ये वक़्त कुछ ऐसा है
कि मुझे उन मुश्किलों से गुज़ारना है 
उन दुखो का सामना करना है 

आखिर कब तक भाग सकती हूँ मैं 
तुझसे, खुद से, इस इश्क से !
कभी सोचा न था कि  मुझे भी किसी से 
कभी इतनी मुहब्बत होगी
इतनी मुहब्बत होगी ...

3 comments:

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    1. thanks...wrote it long time back!..before coming to Shillong...but felt motivated today only to share.. :)

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