Thursday 12 June 2014

ये दोस्ती ...

"So this poem I wrote for a very good friend of mine... A friend who should have been my priority rather than the one who actually was... Wrong priorities cost me the kind of friendship that I had with him, at least in my mind. Distances creep-ed up between us. And where we used to talk daily... every few hours... converted into weekly. And when I realized that I shouldn't have let that happen, I guess it was too late...

कभी कभी यूँ अचानक से
दोस्तों से बातें करते हुए
उनकी कहानियाँ सुनते हुए
एक कहानी मैं भी जोड़ लेती हूँ
एक कहानी जिसकी शुरुआत तो अच्छी थी
पर राह चलते चलते
कुछ ग़लत मोड़ ले लिए
सोच में डूब जाती हूँ फिर मैं
कि काश ऐसा किया होता
या काश वैसा ना किया होता
तो शायद मेरी कहानी का
मंज़र ही कुछ और होता
शायद हम आज भी वैसे ही दोस्त होते
शायद वो राहें आज भी समतल होती
शायद उन कांटो की जगह
कुछ फूल ही होते
शायद होती हमारी दोस्ती और भी गहरी

काश इन शायद को सच में बदल सकती मैं
काश ये काश एक हकीकत होता …
तो कुछ कहानियाँ आज मैं तुम्हे सुना रही होती
और ये बातें मैं तुमसे कह रही होती
पर अब तो आलम ये है कि
तेरी मेरी कहानी इस काश और शायद में
सीमित रह गयी है
काश ये बदल पाती मैं
काश…

"P.S.: After writing this poem I realized its never too late and fortunately we are back on talking terms... everything sorted out... Though we still don't talk daily, but we are back to being good friends :-)"

Wednesday 4 June 2014

तुम और मैं मिलेंगे



बस उस दिन का इंतज़ार है
जब एक दूसरे का हाथ पकड़ के
एक दूजे की आँखों में आँखें डाले
एक हसीं शाम को
तुम और मैं मिलेंगे

उन समुन्दर की लहरों में चलते हुए
एक शाम को सूरज को ढलते हुए
उस कश्ती को सूरज से ओझल होते हुए
देखेंगे हम जब
तुम और मैं मिलेंगे

अपने हसीं पुराने दिनों को
अपने उन पागलपन भरी हरकतों को
वो प्यार और तकरार वो रूठने और मनाने को
याद करेंगे हम जब
तुम और मैं मिलेंगे

ना जाने कब कहाँ और कैसे
कुछ दिन, हफ्ते या महीनों में
ना ही पता है कितने वक़्त के लिए
किस लम्हे और घड़ी में
तुम और मैं मिलेंगे

बस यक़ीं है कि तुम और मैं मिलेंगे
हम मिलेंगे