Friday 2 December 2011

ना जाने क्यों?

देखा था तुझे मैंने
अपने ही आसपास..यहीं तो था तू 
तूने हाथ भी बढ़ाया था मेरे लिए
पर तेरे पास जाते-जाते सब धुंधला क्यों हुआ
क्यों तू फिर जाने लगा मुझसे दूर
ना जाने क्यों?

सब से दूर जाने के बाद भी
तू रोज़ आता था मुझसे मिलने
वैसे ही प्यार-दुलार करता था तू मुझसे
तेरा स्पर्श..तेरा स्नेह..तेरा अनुभव
यकीं हो चला था मुझे कि सब सच है
ना जाने क्यों?

अक्सर साथ चला करते थे हम
हाथ में हाथ थामे संग एक दूसरे के
लम्बी से लम्बी दूरियाँ तय करते थे
पर अचानक ये रास्ते ग़ायब क्यों होने लगे
तेरा मेरा साथ छूटने क्यों लगा
ना जाने क्यों?

पल भर का साथ था तेरा बस
फिर भी ज़िन्दगी उसी के चारों तरफ घूमने लगी थी
घडी-दो-घडी हँस के बिता के तेरे साथ
जीवन कि खुशियाँ बटोरने लगी थी मैं
फिर अचानक हुआ सच्चाई से सामना…
ना जाने क्यों?

फिर ख़याल आया मुझे…
फिर आँखें खुली मेरी
फिर एहसास हुआ मुझे..
आखिर ये एक ख्वाब ही तो देख रही थी मैं !
पर सवाल अभी भी यही है..
ना जाने क्यों?

No comments:

Post a Comment