Tuesday 1 November 2011

मिट्टी का बना दीया, मिट्टी के बने तुम

दीया…आखिर है क्या?
कुछ तो नहीं...
बस एक मिट्टी से बना आकार 
घी और बाती से जला
वक़्त खत्म और बुझ गया…

पर अगर देखो तुम ध्यान से
तो ना जाने कितनी चीज़े सिखा देता है ये दीया
बस फर्क है नजरों का 
और ज़रूरत है तो बस ध्यान की 
देख सको तो ग़ौर करना ज़रूर…

वो मिट्टी का आकार सिखाता है क्या
ज़रा देखो तो...
खुद को एक मिट्टी का कण समझो 
और ये जान लो की गर मिल जाओ तुम अपने जैसे कई कण के साथ 
तो कितनी ताकत होगी तुम में...

जैसे दीया जलते लौ से बेफिक्र रहता है वैसे 
कितनी भी आग-सी मुश्किलें आये 
सब सहन करने की शक्ति होगी तुममे 
जैसे दीया घी संभाल के लौ को बढ़ने देता है वैसे 
दूसरो को आगे बढ़ने में सहायता करने की क्षमता होगी तुममे 

वो पिघलता घी सिखाता है क्या 
ज़रा देखो तो...
खुद को उस घी की जगह समझो 
और ये जान लो कि कभी तुम्हारा कोई बलिदान 
व्यर्थ नहीं जाता...

जैसे घी खुद जल कर लौ को जलने देती है वैसे
यदि कभी किसी को बढ़ने का मौका दे सको 
तो झुकने से कभी घबराना नहीं तुम
जैसे घी जलने पर भी दूसरों को खुशबू देती है वैसे
कितनी भी मुश्किलों में हो, दूसरों के चेहरे पे मुस्कान लाते रहना तुम

वो जलती लौ सिखाती है क्या
ज़रा देखो तो...
खुद को तुम वो लौ ही समझो 
और ये जान लो की तुम्हारा जीवन भी सिमित ही है 
बस फर्क है तो केवल समय का ...

जैसे वो जलती लौ दूसरों को रोश्नी देती है वैसे 
अपने जीवन में ऐसे कार्य करते रहो 
जिससे लोग प्रेरित हो तुमसे 
जैसे वो लौ तेज़ हवा, आंधी-तूफां से लड़ता है, बुझने से पहले भी एक बार तेज़ जलता ज़रूर है, वैसे
जीवन में आने वाली हर मुश्किलों से लड़ो...किसी भी परिस्थिति से हार मानने से पहले संघर्ष ज़रूर करो तुम

दीया…आखिर है क्या?
कुछ तो नहीं...
बस एक मिट्टी से बना आकार
जैसे बने हो तुम…
फर्क बस इतना है की तुमको भगवान ने बनाया 
और दीये को तुमने…

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