Monday, 17 October 2011

मन...

ये बावरा मन मेरा
कभी उछलता इधर, कभी मचलता उधर
कोई ठिकाना ना मेरा
कहाँ ले जाये इसे एक नया सवेरा..

सूरज की किरणे हो
तो इक और चले..
काले घने बादल हो 
तो दूजी और बढे..
कहीं किसी पल तो थमेगा, रुकेगा
ये अनदेखा अनजाना मन मेरा..

हर शख्स के लिए है इसका एक नया चेहरा
ना जाने कैसे बदले ये खुद को
हर नयी घडी हर नया पहरा
कभी ज़िद्दी..पागल..शैतान..
तो कभी चंचल..भोला..और नादान !!

कभी है ये उन्मुक्त पवन सा
तो कभी है ये शांत तारों सा
कभी झकझोरता ये सबके दिलो को
तो कभी सहम जाता ये नाज़ुक कली-सा..

जिस पल समझ लू अपने इस मन को
वो वक़्त ना जाने कैसा होगा
कभी ना कभी तो आएगा ऐसा लम्हा
भले ही वो नए मंज़र का दस्तक होगा...

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